सरकारी योजनाएं और उनके समय पर क्रियान्वयन पर विशेष

वाराणसी। कहते हैं कि" समय चूकि फिर का पछताने , का बरखा भये कृषि सुखाने"। हर काम समय पर ठीक होता है और समय निकल जाने के बाद उस काम की कोई कीमत नहीं रह जाती है क्योंकि जब प्यास लगती है तब पानी मीठा लगता है और पीने की इच्छा कहती है लेकिन प्यास खत्म होने के बाद उसी मीठे पानी की कोई कदर नही रह जाती है।इसी तरह भूख लगने पर खाना स्वादिष्ट लगता है और पाचक होता है। बिस्तर की कीमत रात में बिस्तर पर होती है और वह रात में न मिले तो उसकी कोई कीमत नही होती है।बिजली खाद पानी बीज दवा डाक्टर इन सब की कीमत समय पर मिलने से होती है। इसी तरह सरकार की विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं पर भी समय की बड़ी कीमत होती है। सरकारी खजाने का पैसा भी खर्च हो जाता है लेकिन उसका समय पर लाभ न मिलने से योजना उद्देश्य हीन हो जाती है।आज हम शिक्षा और कृषि विभाग पर समयबद्धता पर चर्चा करना चाहते हैं और अपेक्षा करते हैं कि सरकार इस तरफ ध्यान देगी।इस समय किसान को गेंहूँ की पहली दूसरी सिंचाई करने के बाद अब उसे उसके विकास के लिए यूरिया की जरूरत है लेकिन बाजार से गायब हो गयी है।यही खाद अगर महीने भर बाद मिले तो गेहूं की क्या दशा होगी ? शिक्षा विभाग में अगर पढ़ाई सत्र शुरू होने के एक पखवाड़े के अंदर बच्चों को किताबें ड्रेस व कपड़े मिल जाय तब तो उसकी सार्थकता है अन्यथा बाद में देना मात्र औपचारिकता पूरी करना होता है। सरकार शिक्षा का उजियारा घर घर पहुंचाने का भले ही प्रयास कर रही हो और करोड़ों अरबों रुपये खर्च कर रही हो लेकिन समय निर्धारण के अभाव में सरकार की मंशा लक्ष्य नहीं प्राप्त कर पा रही है।सरकार और उसके जिम्मेदार अधिकारियों की मनमानी कह लीजिए चाहे लापरवाही कहें कि शिक्षा सत्र शुरू होने के महीनों बाद तक ड्रेस व किताबें उपलब्ध नहीं हो पाती हैं। अब तो स्कूली बच्चों को जूता मोजे के साथ सर्दी से बचाने के लिए स्वेटर भी दे रही है।जूता मोजा ड्रेस का वितरण दिसम्बर तक किया गया है और दिसम्बर महीने से ही हो रही कड़ाके की जानलेवा ठंड पड़ने और शीत लहर चलने के बावजूद सभी विद्यालयों के बच्चों को स्वेटर नहीं मिल सके हैं। अगर यह सर्दी समाप्त होने के बाद मिलते हैं तो सोचने समझने की बात है कि इसका क्या लाभ मिलेगा ? सरकारी धन भी खर्च होगा लेकिन उसका समुचित लाभ समय पर नही मिलेगा और सरकार का लक्ष्य प्रभावित होगा।अब जनवरी महीने में सरकार को स्वेटर की सुध आयी है और उसने दो सौ रुपये मूल्य दर पर बच्चों को स्वेटर उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी शिक्षकों को सौपी है। कुछ जगहों पर शिक्षकों ने अपने संगठनों के माध्यम से सरकार की इस नीति का विरोध करना और हाथ खड़े करना शुरू कर दिया है। शिक्षकों का कहना है कि जब सरकार को दो सौ अड़तालिस रुपये न्यूनतम दर मिली थी तो हमें दो सौ में कैसे मिल जायेगा। इसे दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि जनवरी महीने में स्वेटर खरीदने के लिये मूल्य को शिक्षक व सरकार के मध्य चल रही रस्साकस्सी का खामियाजा इस कलेजा दहलाने वाली ठंड में बच्चों को भुगतना पड़ रहा है।


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